इस साल की शुरुआत से ही इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच हिंसा में तेज़ी आई है जिसमें दोनों तरफ़ कई लोग मारे जा चुके हैं.
जहां एक तरफ़ भारत की फ़लस्तीनी लोगों के प्रति नीति पारंपरिक तौर पर सहानुभूतिपूर्ण रही है, वहीं दूसरी ओर पिछले कुछ सालों में इसराइल से भी उसकी नज़दीकियां बढ़ीं हैं.
यही वजह है कि इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच चल रहा हिंसा का दौर भारत के लिए एक असमंजस की स्थिति पैदा करता है.
क्योंकि कूटनीतिक स्तर पर भारत की हमेशा यही कोशिश रहती है कि एक संतुलन बनाए रखा जाए.
ऐसे में ये स्वाभाविक है कि भारत का संयुक्त राष्ट्र में इसराइल के ख़िलाफ़ वोट करना एक चर्चा का विषय बन जाए.
भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में हाल ही में लाए गए उस प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया जिसमें इसराइल को 1967 के बाद से क़ब्ज़े वाले इलाक़ों को छोड़ने के साथ-साथ नई बस्तियों की स्थापना और मौजूदा बस्तियों के विस्तार को तुरंत रोकने के लिए कहा गया. साथ ही भारत ने उस प्रस्ताव के पक्ष में भी मतदान किया जिसमें फ़लस्तीनी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन किया गया था.
पूर्वी यरूशलम समेत क़ब्ज़े वाले फ़लस्तीनी इलाक़े क्षेत्र में मानवाधिकारों की स्थिति पर एक अन्य प्रस्ताव पर भारत ने वोट नहीं किया.साल 1999 में फ़लस्तीन के कद्दावर नेता रहे यासर अराफ़ात भारत के दौरे पर आए थे. उन्होंने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजयेपी से मुलाक़त की.
फ़लस्तीन को भारत का समर्थन दशकों पुराना
भारत का विदेश मंत्रालय कई मौक़ों पर ये साफ़ कर चुका है कि फ़लस्तीन के मुद्दे पर भारत का समर्थन देश की विदेश नीति का एक अभिन्न अंग है.
फ़लस्तीन मुद्दे को भारत का समर्थन दशकों पुराना है. साल 1974 में भारत फ़लस्तीन मुक्ति संगठन को फ़लस्तीनी लोगों के एकमात्र और वैध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने वाला पहला ग़ैर-अरब देश बना था.
1988 में भारत फ़लस्तीनी राष्ट्र को मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक बन गया. 1996 में भारत ने ग़ज़ा में अपना प्रतिनिधि कार्यालय खोला जिसे बाद में 2003 में रामल्ला में स्थानांतरित कर दिया गया था.
बहुत से बहुपक्षीय मंचों पर भारत ने फ़लस्तीनी मुद्दे को समर्थन देने में सक्रिय भूमिका निभाई है. संयुक्त राष्ट्र महासभा के 53वें सत्र के दौरान भारत ने फ़लस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार पर मसौदा प्रस्ताव को न केवल सह-प्रायोजित किया बल्कि इसके पक्ष में मतदान भी किया था.
भारत ने अक्टूबर 2003 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव का भी समर्थन किया जिसमें इसराइल के विभाजन की दीवार बनाने के फ़ैसले का विरोध किया गया था. 2011 में भारत ने फ़लस्तीन के यूनेस्को के पूर्ण सदस्य बनने के पक्ष में मतदान किया था.
2012 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव को सह-प्रायोजित किया था जिसमें फ़लस्तीन को संयुक्त राष्ट्र में मतदान के अधिकार बिना “नॉन-मेंबर आब्ज़र्वर स्टेट” बनाने की बात थी. सितंबर 2015 में भारत ने फ़लस्तीनी ध्वज को संयुक्त राष्ट्र के परिसर में स्थापित करने का भी समर्थन किया था.
भारत कई प्रोजेक्ट्स बनाने में भी फ़लस्तीनियों की मदद कर रहा है.
फ़रवरी 2018 में नरेंद्र मोदी फ़लस्तीनी क्षेत्र में जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने. उस दौरान मोदी ने कहा था कि उन्होंने फ़लस्तीनी प्रशासन के प्रमुख महमूद अब्बास को आश्वस्त किया है कि भारत फ़लस्तीनी लोगों के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है.
मोदी ने कहा था, “भारत फ़लस्तीनी क्षेत्र को एक संप्रभु, स्वतंत्र राष्ट्र बनने की उम्मीद करता है जो शांति के माहौल में रहे.”दस फ़रवरी 2018 को वेस्ट बैंक के रामल्ला में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहुंचे थे. मोदी फ़लस्तीनी क्षेत्र में जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं.
इसराइल के ख़िलाफ़ वोट के क्या हैं मायने?
डॉ प्रेम आनंद मिश्रा जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के नेल्सन मंडेला सेंटर फ़ॉर पीस एंड कॉनफ़्लिक्ट रेज़ोल्यूशन में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.
उनके मुताबिक़, भारत का ये क़दम उसकी अंतरराष्ट्रीय छवि को बनाए रखने से जुड़ा हुआ है.
वे कहते हैं, “किसी भी देश की विदेश नीति का आयाम केवल दूसरे देशों से उसके द्विपक्षीय संबंधों की मज़बूती तक सीमित नहीं होता है बल्कि इस बात को भी देखता है कि उस देश की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में क्या छवि बनती है.”
डॉ मिश्रा के मुताबिक़, ऐतिहासिक तौर पर देखें तो साफ़ है कि भारत ने कभी भी ऐसे फ़ैसले आँख मूँद कर नहीं लिए हैं चाहे किसी की भी सरकार रही हो.
वे कहते हैं, “ये सही है कि भारत और इसराइल के संबध पहले के मुक़ाबले बहुत क़रीब हुए हैं. लेकिन अभी की सरकार ने डीहायफ़नेशन की नीति अपनायी है जिसके तहत इसराइल के साथ संबधों को इसराइल तक रखा जाए और फ़लस्तीन के साथ संबंधों को फ़लस्तीन तक रखा जाए, न कि एक ही नज़र से दोनों को देखा जाए.”
डॉ मिश्रा कहते हैं, “इसे विदेश नीति में व्यवहारवाद कहा जाता है कि हम किस हद तक अपने संबंधों को बचा कर भी रख सकते हैं लेकिन हम साथ ही अपनी लोकतंत्र देश की छवि और अंतरराष्ट्रीय न्याय में हमारे विश्वास को दिखा सकते हैं और ये जता सकते हैं कि हम आँखें बंद कर के किसी देश का समर्थन नहीं करते. कूटनीतिक स्तर पर भारत जब भी इस तरह के फ़ैसले लेता है तो इसराइल और फ़लस्तीन से बात ज़रूर करता है. लेकिन ऐसी परिस्थितियां मुश्क़िल ज़रूर होती हैं.”
भारत और इसराइल के क़रीबी रिश्ते
भारत इसराइल से महत्वपूर्ण रक्षा टेक्नॉलोजी का आयात करता रहा है. साथ ही दोनों देशों की सेनाओं के बीच भी नियमित आदान-प्रदान होता है. सुरक्षा मुद्दों पर दोनों देश साथ काम करते हैं. दोनों देशों के बीच आतंकवाद विरोधी संयुक्त कार्यदल भी है.
फ़रवरी 2014 में भी भारत और इसराइल ने तीन महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे. ये समझौते आपराधिक मामलों में आपसी क़ानूनी सहायता, होमलैंड सुरक्षा और ख़ुफ़िया जानकारी के सुरक्षित रखने से जुड़े थे.
साल 2015 से भारत के आईपीएस अधिकारी हर साल इसराइल की राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में एक हफ़्ते की ट्रेनिंग के लिए जाते रहे हैं.
दोनों देशों के पर्यटक एक बड़ी संख्या में हर साल एक दूसरे के देश घूमने जाते हैं. साल 2018 में 50,000 से ज़्यादा इसराइलियों ने भारत का दौरा किया, जबकि 70,000 से ज़्यादा भारतीय पर्यटक इसराइल घूमने गए. भारत से जुड़े कई पाठ्यक्रमों को तेल अवीव विश्वविद्यालय, हिब्रू विश्वविद्यालय और हाइफ़ा विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता है.
‘भारत ने फ़लस्तीन मुद्दे को नहीं छोड़ा है’
प्रोफ़ेसर हर्ष वी पंत नई दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के अध्ययन और विदेश नीति विभाग के उपाध्यक्ष हैं.
उनका कहना है कि भारत इसराइल और फ़लस्तीन के साथ अपने संबंधों को अलग-अलग रखने की कोशिश कर रहा है.
वे कहते हैं, “अतीत में फ़लस्तीन का मुद्दा भारत-इसराइल संबंधों पर हावी था तो इसराइल से जुड़ी हर चीज़ को उस चश्मे से देखा जाता था. मुझे लगता है भारत उस सांचे को तोड़ने में सफल रहा है. इसी तरह आप फ़लस्तीन के साथ अपने संबंधों के बावजूद आप इसराइल के साथ स्वतंत्र सम्बन्ध विकसित कर सकते हैं.”
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भारत के इसराइल के ख़िलाफ़ वोट करने पर पंत कहते हैं, “जिस तरह से भारत ने इन प्रस्तावों पर मतदान किया है, उससे पता चलता है कि भारत दो-राष्ट्र समझौते में विश्वास करता है जो इस मामले पर भारत की सार्वजनिक स्थिति भी है. और कोई भी बात जो उस दो-राष्ट्र समझौते के समाधान के लिए समस्या पैदा करती है, वह ऐसी बात होगी जिसके बारे में भारत चिंतित होगा.”
मानवाधिकारों के मुद्दे पर भारत ने जिस प्रस्ताव पर वोट नहीं किया उस पर हर्ष पंत कहते हैं, “यह मानवाधिकार का मामला है और स्थिति अधिक जटिल हो जाती है क्योंकि आप वास्तव में कभी नहीं जानते हैं कि हिंसा के लिए कौन ज़िम्मेदार है और कौन परेशानी पैदा कर रहा है. तो भारत ने ये जता दिया है कि वो अब इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं है कि कौन ज़िम्मेदार है.”
हर्ष पंत कहते हैं कि ये साफ़ है कि भारत ने फ़लस्तीन मुद्दे को नहीं छोड़ा है.
वे कहते हैं, “प्रधानमंत्री मोदी भी इसराइल की यात्रा के बाद फ़लस्तीनी इलाक़ों की यात्रा पर गए थे. इस सरकार में भी भारत द्विपक्षीय स्तर पर फ़लस्तीन के साथ बातचीत करता रहा है. इसलिए ये कहने की कोशिश नहीं है कि फ़लस्तीनी मुद्दा हमारे संबंधों के लिए अप्रासंगिक है, बल्कि ये कहने की कोशिश है कि इसराइल से हमारे सम्बन्ध कैसे होंगे इसका फ़ैसला फ़लस्तीनी मुद्दा नहीं करेगा.”
पंत कहते हैं कि यह भारत की अंतर्निहित नीतियों को दर्शाता है. “भारत दो-राज्य समाधान चाहता है. वो चाहता है कि फ़लस्तीनियों के पास अपनी ज़मीन और राज्य हो लेकिन वो किसी भी तरफ़ से हिंसा नहीं चाहता है. भारत उस किसी भी पक्ष के साथ नहीं है जो एकतरफ़ा यथास्थिति को बदलने की कोशिश करता है.”साल 2019 में इसराइली लिकुड पार्टी के चुनावी बैनर पर नेतन्याहू के साथ मोदी की तस्वीर.
भारत और इसराइल के संबंधों पर असर
भारत के इसराइल के ख़िलाफ़ वोट करने से ये सवाल उठना लाज़मी है कि इसका दोनों देशों के संबंधों पर क्या असर पड़ेगा.
हर्ष पंत कहते हैं कि इसराइल में कुछ लोग होंगे जो भारत के इसराइल के ख़िलाफ़ मतदान करने पर सवाल उठाएंगे. “लेकिन नेतन्याहू ने भी हमेशा सार्वजनिक रूप से कहा है कि इसराइल भारत की स्थिति को समझता है और इसीलिए इसराइल भारत के प्रति धैर्यवान रहा है.”
पंत के मुताबिक़, इसराइल ने कभी इस बात पर ज़ोर नहीं दिया है कि भारत हर एक मुद्दे पर उसका समर्थन करे.
वे कहते हैं, “मतदान का पैटर्न यह दर्शाता है. भारत पिछले दो दशकों के दौरान भी फ़लस्तीनी मुद्दों के पक्ष में मतदान करता रहा है और ये वही समय था जब भारत और इसराइल के संबंध गहरे हो रहे थे.”
वो आगे कहते हैं, “इसलिए मुझे नहीं लगता कि इस मतदान से संबंधों की दिशा और गति प्रभावित होगी. ये हो सकता है कि इसराइल में कुछ अति-दक्षिणपंथी राजनेता भारत के मतदान पैटर्न पर सवाल उठा सकते हैं. लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह मुख्यधारा के राजनीतिक प्रतिष्ठान का दृष्टिकोण होगा.”
हर्ष पंत ये भी कहते हैं कि नेतन्याहू एक दक्षिणपंथी नेता हैं और वे पिछले कुछ वर्षों से दोनों देशों के बीच संबंधों के सूत्रधार रहे हैं.
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, “मुझे भारत-इसराइल संबंधों के लिए कोई चुनौती नहीं दिख रही है क्योंकि ये सम्बन्ध बहुआयामी है, द्विपक्षीय है, ये नेताओं के स्तर पर है और यह क्षेत्रीय स्तर पर है जहां भारत आई2यू2 में इसराइल के साथ शिरकत करता है.”