रिस्की गेम खेल गए जीतन राम मांझी, नीतीश ने झटका हाथ, एकमात्र सहारा BJP का साथ
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43 साल से सत्ता और सरकार की राजनीति कर रहे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का अपने मंत्री बेटे संतोष सुमन मांझी से नीतीश कुमार की सरकार से इस्तीफा कराना रिस्की कदम साबित हुआ।

नीतीश ने हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के अध्यक्ष और एससी-एसटी कल्याण मंत्री संतोष सुमन का इस्तीफा मंजूर कर लिया है जिसकी उम्मीद शायद जीतन राम मांझी को नहीं रही होगी। मांझी ने सोचा होगा कि महागठबंधन में बेटे के इस्तीफे से खलबली मच जाएगी और उन्हें मनाने का दौर चलेगा। लेकिन हुआ उलटा। जेडीयू वाले कहने लगे कि ऐसे लोग आते-जाते रहते हैं। लालू यादव या तेजस्वी यादव ने कोई कोशिश भी नहीं की।

23 जून को विपक्षी दलों की पहली एकता मीटिंग पटना में हो रही है जिसमें नीतीश ने बड़े जतन से राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, स्टालिन, हेमंत सोरेन, सीताराम येचुरी, डी राजा, दीपांकर भट्टाचार्य जैसे नेताओं को बुलाया है। मांझी को लगा होगा कि इस इस्तीफे से विपक्षी एकजुटता के बन रहे माहौल पर असर होगा। लेकिन नीतीश कुमार किसी दबाव में नहीं आए और एक झटके में संतोष सुमन का इस्तीफा मंजूर कर मांझी की उछल-कूद की राजनीति का महागठबंधन में समापन कर दिया।

कहने को तो हम अध्यक्ष संतोष सुमन मांझी ने इस्तीफे के बाद कहा कि हम अब भी महागठबंधन का हिस्सा है लेकिन ये सबको पता है कि 2020 का चुनाव एनडीए से लड़ने वाले मांझी महागठबंधन में जेडीयू के कोटे से घुसे थे। नीतीश ने उनके बेटे संतोष सुमन को जेडीयू कोटे से ही मंत्री बनाया था। जब पिछले साल नीतीश एनडीए छोड़कर आरजेडी महागठबंधन के साथ आए थे तो मंत्री बनाने के लिए बेसिक कोटा आरजेडी और जेडीयू का ही बना था। तेजस्वी और नीतीश ने खुद इस डील को फाइनल किया था।

कांग्रेस को आरजेडी के कोटे से मंत्री का पद मिला था जबकि हम को जेडीयू के खाते से। अब जब मांझी के बेटे संतोष सुमन सरकार छोड़ चुके हैं और उनका इस्तीफा स्वीकार कर नीतीश भी मांझी को छोड़ चुके हैं तो यह बहुत साफ है कि महागठबंधन में मांझी और उनकी हम की जगह बहुत नहीं बची है। औपचारिकता कोई बची होगी तो वो भी पूरी हो जाएगी। ये अब साफ दिख रहा है कि जहां नीतीश वहां मांझी नहीं। मांझी कुछ दिन पहले कसम खा रहे थे कि कभी नीतीश का साथ नहीं छोड़ेंगे।

मांझी का दर्द भी तो यही था कि 23 जून की बैठक में उनको नहीं बुलाया गया है जबकि वो भी एक छोटी ही सही लेकिन महागठबंधन की पार्टी हैं। मांझी समझ नहीं पाए कि नीतीश उनकी पार्टी को जेडीयू कोटे में गिन रहे हैं। अब संतोष सुमन ने साफ कह भी दिया कि नीतीश चाहते थे कि हम का जेडीयू में विलय हो जाए। ये बात मांझी को मंजूर नहीं थी। तो रास्ता अलग होने का रास्ता खुल गया है। इसकी सुगबुगाहट तभी हो गई थी जब मांझी ने कुछ दिन पहले कहा था कि उनकी पार्टी सभी सीटों पर लोकसभा चुनाव की तैयारी कर रही है और कम से कम पांच सीट तो उनका बनता है। अगर सम्मानजनक सीट नहीं मिली तो वो देखेंगे।

नीतीश से झटका खाने के बाद मांझी के पास देखने के लिए एक ही रास्ता बचा है जो दिल्ली जाता दिख रहा है जहां वो पिछले महीने अमित शाह से मिले थे। महागठबंधन से निकलने या निकाले जाने के बाद हम के पास बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए में जाने के अलावा कोई विकल्प है नहीं। अकेले लड़कर तो हम एक सीट नहीं जीत सकती ये मांझी को बहुत अच्छे से पता है।

खुद बिहार की 40 में कम से कम 30 सीट लड़ने की तैयारी कर रही बीजेपी मांझी को पांच सीट तो हरगिज नहीं देगी। लेकिन फिर मांझी के पास जो मिल रहा है उसी को सम्मान के साथ कबूलने की मजबूरी होगी। राज्य की मौजूदा राजनीति में सीधा दो ध्रुव है। आप या तो महागठबंधन में हैं या एनडीए में हैं।

2024 में आमने-सामने का लोकसभा चुनाव होना तय है। तीसरे मोर्चे या पार्टी की कम से कम बिहार में कोई जगह नहीं है। इसी वजह से चिराग पासवान और मुकेश सहनी पहले से एनडीए में सम्मान के साथ वापसी के लिए बीजेपी के दरवाजे पर खड़े हैं। मांझी ने बस उस लिस्ट को लंबा कर दिया है।

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