नीतीश ने पटना बुलाया नहीं, विपक्षी एकता मीटिंग से पहले अखिलेश के गठबंधन ऑफर पर क्या फैसला लेंगी मायावती?
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देश की नजरें इस हफ्ते पटना पर टिकी हैं। 23 जून को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मेजबानी में 17 विपक्षी दलों या और स्पष्ट कहें तो भाजपा विरोधी दलों की पहली एकता बैठक हो रही है।

बैठक में पश्चिम बंगाल से महाराष्ट्र और कश्मीर से तमिलनाडु तक के नेताओं के आने की खबर है लेकिन उस लिस्ट में यूपी की तीसरी बड़ी ताकत बसपा सुप्रीमो मायावती का नाम नहीं है। नहीं आने वालों में नवीन पटनायक और के चंद्रशेखर राव भी हैं जिनसे नीतीश की मुलाकात हुई लेकिन अखिलेश यादव से मिलने लखनऊ आए नीतीश बिना मायावती से मिले या उनको बुलाए लौट गए थे। अब नीतीश की एकता मीटिंग से दो दिन पहले बसपा अध्यक्ष मायावती ने लखनऊ में 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर पार्टी की हाई लेवल मीटिंग बुला ली है।

मायावती ने आश्चर्यजनक रूप से मंगलवार को खुद ट्वीट करके बताया- “उत्तर प्रदेश व देश में तेज़ी से बदल रहे राजनीतिक हालात, उससे सम्बंधित ख़ास घटनाक्रमों एवं समीकरणों के साथ ही आगामी लोकसभा आम चुनाव की तैयारी को लेकर बीएसपी यूपी स्टेट, सभी मंडल तथा सभी ज़िला स्तर के वरिष्ठ पदाधिकारियों की महत्त्वपूर्ण रणनीतिक बैठक कल लखनऊ में आहूत।” मायावती के ट्वीट को गौर से पढ़ें तो साफ दिखता है कि पटना में हो रही गोलबंदी पर उनकी नजर है जिसे उन्होंने यूपी और देश में तेजी से बदल रहे राजनीतिक हालात, घटनाक्रम और समीकरणों के जरिए जाहिर किया है। मायावती की पार्टी बसपा सपा से लेकर कांग्रेस तक के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ चुकी है और भाजपा के समर्थन से तो वह तीन बार मुख्यमंत्री बनी हैं।

लखनऊ में बीएसपी कार्यालय में सुबह 10.30 बजे बुलाई गई मीटिंग में मोटा-मोटी पार्टी के सभी कायदे के नेताओं को बुला लिया है। उनको पता है कि 2024 के चुनाव के लिए शतरंज की बिसात बिछ चुकी है और इसमें पीछे रहने या देरी करने का उन्हें नुकसान उठाना पड़ सकता है। फैसले सही हों इतना ही काफी नहीं है। राजनीति में सही समय पर फैसले की भी उतनी ही अहमियत है। यूपी में बीजेपी विरोधी एक और पार्टी अखिलेश यादव की सपा है जो राज्य में बसपा से बहुत आगे निकल चुकी है। ऐसे में मायावती दबाव में है कि बसपा ऐसी रणनीति के साथ 2024 के चुनाव में उतरे कि उसे उसका वोट शेयर वापस मिले ही, साथ में सीट भी मिले। इस रणनीति में सपा या कांग्रेस या दोनों के साथ गठबंधन भी एक विकल्प है जिस पर 21 जून की मीटिंग में मायावती पार्टी के नेताओं के साथ चर्चा करेंगी।

2019 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन के बाद बसपा से आधी सीट जीतने वाले सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और मायावती के रास्ते अलग हो गए थे। सपा इससे पहले 1993 का विधानसभा चुनाव बसपा के साथ लड़ी थी जब मुलायम दूसरी बार मुख्यमंत्री बने थे। उसके बाद 1995 में गेस्ट हाउस कांड हो गया और मायावती और मुलायम एक-दूसरे के राजनीतिक दुश्मन बन गए थे। 24 साल बाद 2019 के चुनाव में मैनपुरी में दोनों एक मंच पर दिखे।

अखिलेश यादव ने पटना की विपक्षी एकता मीटिंग से पहले मायावती को गठबंधन का ऑफर देते हुए कह दिया है कि सपा ने हमेशा बड़े दिल से गठबंधन किया है और वह उम्मीद करती है कि दूसरी पार्टियां बड़ा दिल दिखाएंगी। गेंद मायावती के पाले में है। भतीजे ने अपनी तरफ से पहल कर दी है। अब बारी बुआ की है कि वो ऑफर पर बात आगे बढ़ाती हैं या फिर यूपी में तीसरे मोर्चे की तरफ बढ़ने का फैसला करती हैं।

मायावती की मीटिंग पटना की मीटिंग से पहले है और मायावती ने इस मीटिंग का न्योता मीडिया को भी भेजा है। इससे संकेत मिल रहे हैं कि मायावती मीटिंग के बाद मीडिया से बात भी कर सकती हैं। अगर ऐसा होता है तो उनके बयान से काफी चीजें साफ हो जाएंगी कि यूपी में बसपा 2024 में सपा या कांग्रेस को अपने साथ देख रही है या नहीं। मायावती पटना में जुट रहे नेताओं को भी मैसेज दे सकती हैं कि उन्हें भूलने की गलती करके यूपी में विपक्षी एकता सफल नहीं होगी।

मायावती की पार्टी के अंदर कांग्रेस से गठबंधन की वकालत करने वाले नेताओं की संख्या बढ़ी है जो कांग्रेस की कर्नाटक में जीत को मुसलमानों के बीच उसमें भरोसे की वापसी के तौर पर भी देख रहे हैं। कांग्रेस और अखिलेश दोनों नीतीश की मीटिंग में जा रहे हैं तो फिलहाल यह माना जा सकता है कि एसपी का झुकाव कांग्रेस की तरफ हो सकता है। पटना की मीटिंग का असली मकसद घोषित हो चुका है जो लोकसभा की 400-450 सीटों पर बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों के एक साझा कैंडिडेट देने का है। यूपी में कांग्रेस और सपा साथ रहें तो भी बसपा तीसरा कैंडिडेट देकर उनका खेल बिगाड़ सकती है। इसलिए पटना जाने वालों की भी नजर मायावती की बुधवार की बैठक के नतीजों पर होगी।

2012 में पांच साल सरकार चलाने के बाद मायावती जब से यूपी की सत्ता से बाहर हुई हैं तब से बीएसपी लोकसभा से विधानसभा तक लगातार हार का सामना कर रही है। वोट शेयर तो जो घटा सो घटा ही है, विधानसभा में भी वो इकलौते विधायक की दुर्दशा तक पहुंच चुकी है। बसपा के उतार के दौर में सपा से गठबंधन का उसे फायदा मिला जब 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के 10 सांसद जीते जबकि सपा को 5 सीट पर ही कामयाबी मिली। 2014 के चुनाव में तो पार्टी एक सीट नहीं जीत पाई थी।

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