जॉर्ज, शरद, आरसीपी और अब ललन सिंह; नीतीश कुमार क्यों सबको लगाते गए किनारे
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लोकसभा चुनाव 2024 से पहले बिहार की गठबंधन सरकार में शामिल जनता दल यूनाइटेड (JDU) में बड़ा बदलाव हुआ है। पार्टी अध्यक्ष राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। लिहाजा, एक बार फिर से पार्टी की कमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हाथों में आ गई है।

हालांकि, इस्तीफा सद्भावपूर्ण माहौल में हुआ लेकिन इस इस्तीफे ने उन अटकलों को बल दिया है, जिसमें कहा जा रहा था कि ललन सिंह इस्तीफा देंगे क्योंकि उनकी लालू परिवार से बढ़ती नजदीकियों की वजह से उनसे नीतीश असहज हैं।

जेडीयू के किसी राष्ट्रीय अध्यक्ष या राष्ट्रीय फलक के नेता की इस तरह या इससे भी बदतर विदाई का यह पहला मामला नहीं है। ललन सिंह से पहले के अध्यक्ष रामचंद्र प्रसाद सिंह (RCP) की विदाई तो नाटकीय अंदाज में और असम्मानजनक परिस्थितियों में हुई थी। उससे पहले पार्टी के दो संस्थापकों जॉर्ज फर्नांडीस और शरद यादव की पार्टी से विदाई भी अपमानजनक तरीके से ही हुई थी।

जेडीयू का गठन
30 अक्टूबर 2003 को जनता दल (यूनाइटेड) का गठन जनता दल , लोक शक्ति और समता पार्टी के के विलय के साथ हुआ था। तब जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली समता पार्टी का जनता दल में विलय हो गया था। विलय की गई इकाई को जनता दल (यूनाइटेड) कहा गया, जिसमें जनता दल का तीर चिन्ह और समता पार्टी का हरा और सफेद झंडा मिलकर जनता दल (यूनाइटेड) का चुनाव चिन्ह बनाया गया था।

इससे पहले 1994 में जॉर्ज फर्नांडीस ने 14 सांसदों को साथ लेकर लालू-शरद यादव से अलग होते हुए जनता दल (जॉर्ज) बनाया था। उस दल में नीतीश भी उनके साथ थे। इसके कुछ महीनों बाद फिर दोनों ने मिलकर समता पार्टी बनाई थी, जो 1998 और 1999 की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में शामिल हुई थी। 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले शरद यादव की जनता दल और नीतीश-जॉर्ज की समता पार्टी ने मिलकर जेडीयू का गठन किया था। तब तय हुआ था कि जॉर्ज और शरद केंद्र की राजनीति करेंगे, जबकि नीतीश बिहार की कमान संभालेंगे।

जॉर्ज के साथ कैसे बिगड़े रिश्ते
2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की हार हो गई और जॉर्ज-शरद सिर्फ एक सांसद बनकर रह गए। हालांकि, जॉर्ज फर्नांडीस तब भी एनडीए के संयोजक बने हुए थे। 2005 में जब बिहार विधानसभा का चुनाव हो रहा था, तब भागलपुर की एक रैली में अटल जी ने नीतीश की खूब तारीफ की थी लेकिन उन्हें सीएम कैंडिडेट बताने से चूक गए। इसके बाद असहज नीतीश ने अरूण जेटली की मदद से तस्वीर साफ करवाई लेकिन जॉर्ज ने उस पर मुहर लगाने से इनकार कर दिया।

कहा जाता है कि यहीं से दोनों के बीच मन-मुटाव का सिलसिला शुरू हुआ। हालांकि, नीतीश ने तब साफ किया था कि जॉर्ज साहब को एनडीए की बैठक में उनके मुख्यमंत्री पद के दावेदार के फैसले की जानकारी नहीं थी। 2005 में जब नीतीश बीजेपी के साथ एनडीए गठबंधन के मुख्यमंत्री बने तो धीरे-धीरे जेडीयू का पावर सेंटर उनकी तरफ केंद्रित होने लगा। पार्टी दो धड़ों में बंटती चली गई। एक जॉर्ज का धड़ा तो दूसरा नीतीश-शरद की जोड़ी का धड़ा। इससे भी पहले 2003 में जॉर्ज ने दो रैलियां बुलाई थीं लेकिन उनमें नीतीश को न्योता नहीं दिया था। इसके जवाब में नीतीश ने भी रैली बुलाई, जिसमें जॉर्ज को नहीं बुलाया गया था।

2009 तक दोनों के बीच खटास चौड़ी खाई में बदल गई। जब 2009 का लोकसभा चुनाव आया तो नीतीश ने जॉर्ज फर्नांडीस का टिकट ही काट दिया। उनकी जगह जयप्रकाश निषाद को मुजफ्फरपुर से टिकट दिया गया। इससे बौखलाए जॉर्ज ने निर्दलीय ताल ठोक दिया। इस मौके को भुनाते हुए नीतीश ने उन्हें जेडीयू से बेआबरू कर विदा कर दिया।

शरद यादव की भी विदाई अपमानजनक रही
जॉर्ज की विदाई के बाद जेडीयू में नीतीश के अलावा शरद यादव ही बड़े कद्दावर नेता रह गए थे। 2003 में अपनी पार्टी का जेडीयू में विलय करने के बाद से वह लगातार इसके अध्यक्ष बने हुए थे। शरद 2016 तक जेडीयू के अध्यक्ष बने रहे। उन्होंने तीन कार्यकाल पूरा करने के बाद अप्रैल 2016 में इस पद को छोड़ दिया था। नीतीश और शरद के बीच खटास तब पैदा हुई थी, जब एनडीए ने नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट घोषित किया था। इस फैसले से नीतीश इतने नाराज हुए थे कि उन्होंने एनडीए से ही नाता तोड़ लिया था। तब शरद यादव एनडीए के संयोजक थे। उन्हें इस वजह से इस्तीफा देना पड़ा था। शरद नहीं चाहते थे कि नीतीश एनडीए छोड़ें।

2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश-शरद ने लालू यादव से हाथ मिला लिया। चुनाव नतीजे उनके पक्ष में रहे।नीतीश फिर मुख्यमंत्री बने लेकिन 2017 में उन्होंने पलटी मारकर फिर से एनडीए का हाथ थाम लिया। शरद यादव को यह नागवार गुजरा और उन्होंने नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। नीतीश ने शरद के साथ-साथ अली अनवर को भी पार्टी से निकाल दिया। इस वजह से दोनों की राज्यसभा सांसदी भी चली गई। उन्हें दिल्ली का घर तक खाली करना पड़ा था।

RCP सिंह थे हनुमान लेकिन कहीं के ना रह सके
नीतीश के गृह जिले नालंदा के मुस्तफापुर गांव के रहने वाले रामचंद्र प्रसाद सिंह (RCP Singh) उत्तर प्रदेश कैडर के IAS अधिकारी थे। वह नीतीश के स्वजातीय यानी कुर्मी हैं। जब अटल सरकार में नीतीश कुमार केंद्र सरकार में मंत्री थे, तब दोनों की नजदीकियां खूब बढ़ीं। केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के दौरान सिंह नीतीश के प्राइवेट सेक्रेटरी थे और जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्हें राज्य का प्रिंसिपल सेक्रेटरी बना दिया गया।

दोनों में नजदीकियां इतनी प्रगाढ़ हो गईं कि 2010 में RCP सिंह ने VRS ले लिया और जेडीयू में शामिल हो गए। धीरे-धीरे RCP जेडीयू में नंबर दो के नेता हो गए। नीतीश के बाद उनकी ही सरकार और संगठन में चलती थी। नीतीश ने उन्हें 2010 में ही राज्यसभा भेज दिया फिर 2020 में जेडीयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा दिया लेकिन दोनों नेताओं में दूरियां तब बढ़ने लगीं, जब केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार में RCP मंत्री बन गए।

दरअसल, 2020 में जब मोदी मंत्रिमंडल का विस्तार कर रहे थे, तब नीतीश ने मंत्रिमंडल में अधिक सीटें मांगने की डील के लिए उन्हें यह काम सौंपा। RCP पार्टी अध्यक्ष भी थे लेकिन RCP ने तब खुद को ही मंत्री बनवा लिया। नीतीश इससे नाराज हो गए। वह नीतीश के निशाने पर आ गए। दोनों के बीच दूरियां बढ़ने लगीं। 2021 में उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। उनकी जगह जुलाई 2021 में ललन सिंह को यह पद सौंपा गया।

इसके बाद नीतीश ने RCP सिंह का राज्यसभा का कार्यकाल नहीं बढ़ाया, इससे उनकी सांसदी चली गई और अंतत: उन्हें मोदी मंत्रिमंडल से इस्तीफा भी देना पड़ा। बाद में वह बीजेपी में शामिल हो गए और नीतीश के खिलाफ बिहार में घूम-घूमकर आवाज बुलंद करने लगे। बिहार के सियासी गलियारों में कहा जाता है कि जो भी नीतीश की मर्जी के खिलाफ कोई कदम उठाता है, जेडीयू में उसका यही हश्र होता है। इस कड़ी में जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, दिग्विजय सिंह समेत और भी कई नाम हैं।

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