बिहार में जाति जनगणना के आंकड़े सामने आ चुके हैं। इसके साथ ही इस पर सियासत का दौर भी शुरू हो चुका है। वहीं, इन आंकड़ों के सियासी नफा-नुकसान पर भी खूब चर्चा हो रही है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इन आंकड़ों का फायदा सबसे ज्यादा बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को होने जा रहा है।
इसके मुताबिक इन आंकड़ों के दम पर नीतीश कुमार की मोलभाव की ताकत बढ़ेगी। खासतौर पर 2024 के लोकसभा चुनाव और 2025 के विधानसभा चुनाव में यह आंकड़े सत्ता का रास्ता तैयार करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। इतना ही नहीं, इसके दम पर नीतीश कुमार सत्ता में कायम रहने के लिए भविष्य में एक बार फिर भाजपा के साथ जाने की संभावनाएं तलाश सकते हैं।
जाति जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक बिहार की आबादी में 27.12 फीसदी ओबीसी हैं। इसके अलावा 36.01 ईबीसी, 19.65 एससी, 1.68 एसटी और 15.52 फीसदी जनरल हैं। अगर बात अति पिछड़ा वर्ग यानी ईबीसी की करें तो इसमें 112 जातियां हैं। वहीं, बैकवर्ड क्लास में 30, एसटी में 32 और एससी में 22 जातियां हैं। बता दें कि दो जून 2022 को बिहार कैबिनेट ने जाति जनगणना के लिए हामी भरी थी। यह सर्वे 7 जनवरी 2023 से शुरू हुआ था।
चुनाव पर असर
क्या आंकड़े आने के बाद राजनीतिक दल इन जातियों का भला करेंगे? राजनीतिक जानकारों ने इस पर सवाल उठाए हैं। जानकार इसे जाति आधारित राजनीति को नए सिरे से शुरू करने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं। पटना यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स डिपार्टमेंट के पूर्व हेड और सामाजशास्त्री एनके चौधरी ने कहा कि जाति जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल मंडल राजनीति को बढ़ावा देने में होगा और ऐसा हुआ तो फायदा बिहार में महागठबंधन को मिलेगा। उन्होंने आगे कहा कि राजनीतिक धारणा यही है कि आरएसएस और भाजपा में ऊपरी जातियों का वर्चस्व है। ऐसे में आंकड़े नीतीश के लिए फायदेमंद हो सकते हैं।
राजनीतिक दलों पर बनेगा दबाव
एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट फॉर सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर ने भी इस पर अपनी राय रखी। उन्होंने कहा कि यह तो तय है कि जो जातियां पहली बार इसमें आई हैं, वह राजनीतिक दलों पर दबाव तो जरूर बनाएंगी। इन सभी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा जागेगी और बैकवर्ड पॉलिटिक्स में इजाफा होगा। उन्होंने मुस्लिमों का उदाहरण दिया, जिनकी आबादी 17.70 फीसदी निकलकर आई है। अब यह लोग अपने लिए भी हक की मांग करेंगे। दिवाकर ने आगे कहा कि आरजेडी और जेडी-यू के पास मुस्लिम-यादव-ओबीसी के साथ-साथ ईबीसी में सॉलिड वोट बेस है और यह संख्या जबर्दस्त है।
नीतीश बनेंगे शक्तिशाली
हालांकि कुछ लोगों का यह भी मानना है जाति जनगणना नीतीश कुमार को और शक्तिशाली बनाएगा। कॉलेज ऑफ कॉमर्स में सोशियालॉजी के एसोसिएट प्रोफेसर ज्ञानेंद्र यादव ने कहा कि जाति जनगणना आरजेडी और जेडीयू जैसे दलों को फायदा पहुंचाएगी। यह दल पहले से जाति आधारित राजनीति कर रहे हैं। खासतौर पर ईबीसी संख्या एक निर्णायक भूमिका निभाने जा रही है, जिसे नीतीश कुमार 2005 से ही पोस रहे हैं। एक्सपर्ट्स का मानना है जाति जनगणना आगामी लोकसभा चुनाव में भी अहम भूमिका निभा सकती है। इसके अलावा यह वर्तमान आरक्षण पर भी असर डालेगी। बता दें कि आज तक, दशकीय जनगणना में केवल धर्म और एससी/एसटी आबादी की गणना की जाती है। इसमें किसी अन्य जाति की जनगणना नहीं होती थी। इससे पहले 1931 की जनगणना के अनुमानों के आधार पर, बिहार की ओबीसी और ईबीसी आबादी 51.3% होने का अनुमान था। अब यह बढ़कर 63.13% हो गई है।
1990 की कहानी
1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने सहयोगी भाजपा की कमंडल (राम मंदिर) राजनीति से अपनी कुर्सी बचाने और हिंदुत्व के नाम पर जातीय गोलबंदी का मुकाबला करने के लिए 1931 की जाति जनगणना के आधार पर तैयार मंडल आयोग की रिपोर्ट को धूल चटा दी। इसके बाद यादवों, कुर्मी/कोइरी जैसे अन्य पिछड़े वर्गों और बनिया के उन वर्गों के लिए 27% आरक्षण की घोषणा की, जो सामाजिक-आर्थिक मानदंडों पर दलितों की तुलना में बेहतर थे, लेकिन आरक्षण के लिए पर्याप्त रूप से हाशिए पर थे। अब 1991 का फॉर्मूला फिर से काम करता दिख रहा है। गौरतलब है कि भाजपा 2024 के चुनावों से पहले हिंदू वोट बैंक का ध्रुवीकरण करने के लिए हिंदू राष्ट्र और समान नागरिक संहिता के एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। इसका मुकाबला करने के लिए बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे नेता जाति गणना के आंकड़ों का इस्तेमाल हिंदू बनाम मुसलमानों के एजेंडे से मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई की ओर मोड़ सकते हैं। वजह, इससे 2015 विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को काफी फायदा हुआ था।
लालू-नीतीश के लिए टूल, लेकिन…
पटना विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व प्रमुख और सामाजिक विश्लेषक नवल किशोर चौधरी का मानना है कि अगर इस पर अच्छी तरह से अमल किया जाए तो यह भाजपा को सत्ता से बाहर करने के लिए भारत के लिए एक ब्रह्मस्त्र साबित हो सकता है। उन्होंने कहा कि वे मंडल राजनीति को पुनर्जीवित करना चाहते हैं जिसकी उपयोगिता खत्म हो चुकी है। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले महागठबंधन के दलों ने महसूस किया है कि यह केंद्र से मोदी सरकार को हटाने का एक बड़ा टूल हो सकता है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि नीतीश और लालू को याद रखना चाहिए कि यह 1990 नहीं है। फिलहाल भाजपा के पास ओबीसी प्रधानमंत्री हैं और वह भी पिछड़ों की राजनीति कर रही है। राजनीति विज्ञान के एक प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि मुख्यमंत्री, जो राजनीतिक बदलाव के लिए जाने जाते हैं, इस सर्वेक्षण के माध्यम से सत्ता में बने रहने के लिए अंतिम राजनीतिक बदलाव करने के लिए फिर से भाजपा के करीब आ सकते हैं। बता दें कि 2019 आम चुनाव में, एनडीए-जिसमें तब भाजपा, जद (यू) और संयुक्त लोक जनशक्ति पार्टी शामिल थे-ने बिहार से 39 सीटें जीती थीं। कांग्रेस ने किशनगंज में केवल एक सीट जीती थी।