मणिपुर में बीते दो दिनों से हिंसा का दौर जारी है। हालात यहां तक बिगड़े कि सेना और अर्धसैनिक बलों की संख्या में तैनाती करनी पड़ी है। फिलहाल यह संग्राम मैतेई समुदाय के लोगों को एसटी का दर्जा दिए जाने के प्रस्ताव पर छिड़ा है।
मैतेई समुदाय के लोग मुख्य तौर पर इम्फाल घाटी में ही रहते हैं, जो राज्य के अन्य हिस्सों के मुकाबले शहरी क्षेत्र है। एसटी का दर्जा मिलने के बाद यहां बसे मैतेई समुदाय के लोग दूसरे इलाकों में भी जमीन खरीद सकते हैं। यही झगड़े की मुख्य वजह बन गया है और कूकी एवं नागा आदिवासी मानते हैं कि उनकी बहुलता वाले इलाकों में मैतेई समुदाय के लोगों का दखल बढ़ेगा।
मणिपुर में आजादी से पहले ही वहां के राजा ने प्रशासनिक लिहाज से दो नियम बनाए थे। इसके तहत मणिपुर के पहाड़ी इलाकों और इम्फाल घाटी के लिए अलग व्यवस्था थी। इसके बाद जब राज्य का भारत में विलय हुआ तो भी व्यवस्था कायम रही। इन नियमों के तहत यह प्रावधान था कि मैदानी इलाकों में रहने वाले लोग पहाड़ों पर जमीन नहीं खरीद सकते। अब भी पहाड़ी इलाकों को स्वायत्ता मिली है और वहां हिल एरिया कमेटी के जरिए प्रशासन चलता है। यहां एसटी का दर्जा रखने वाले लोग ही जमीन खरीद सकते हैं। अब यदि मैतेई लोगों को भी एसटी का दर्जा मिला तो वे आदिवासी इलाकों में बसने लगेंगे। इससे आदिवासी चिंतित हैं और विरोध में उतरे हैं।
दरअसल इम्फाल घाटी में मैतेई समुदाय बसा है, जो राज्य का 10 फीसदी हिस्सा ही है और उनकी आबादी 53 पर्सेंट है। इस तरह इम्फाल घाटी में आबादी का घनत्व कहीं ज्यादा है और जगह कम। ऐसे में मैतेई समुदाय के लोगों को लगता है कि उन्हें भी एसटी का दर्जा मिल जाए तो वे पहाड़ी जिलों में भी बस सकेंगे। इसी के तहत 12 साल पहले मैतेई समुदाय ने एसटी का दर्जा मांगा था। फिर यह मांग हाई कोर्ट पहुंची और इसी 27 मार्च को मणिपुर हाई कोर्ट की सिंगल बेंच ने राज्य की भाजपा सरकार से कहा कि वह केंद्र सरकार को इस संबंध में सुझाव दे कि कैसे मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा मिल सकता है।
हाई कोर्ट पहुंचा मामला तो और बिगड़ गई बात
मैतेई समुदाय के याचियों का कहना था कि हममें 21 सितंबर, 1949 तक एसटी का दर्जा मिला हुआ था। यानी भारत में विलय तक उन्हें यह दर्जा था, लेकिन उसके बाद समाप्त हो गया। हाई कोर्ट के फैसले ने मैतेई समुदाय और आदिवासियों के बीच चले आ रहे पुराने झगड़े को फिर से जिंदा कर दिया। मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा मिलने से कूकी और नागा आदिवासियों को यह भय है कि वे पहाड़ी इलाकों में बसेंगे और उनकी स्वायत्ता प्रभावित होगी।