इमरजेंसी के बाद भारत के लोकतंत्र में ऐसा वक्त आया जब सरकारें स्थाई नहीं थीं। इंदिरा गांधी द्वारा लागू की गई इमरजेंसी के बाद लोगों में भारी आक्रोश था। 1977 के आम चुनाव में जनता ने इंदिरा गांधी को बाहर का रास्ता दिखा दिया और जनता पार्टी की सरकार को केंद्र में सत्ता दिलाई।
मोरारजी देसाई इस सरकार के मुखिया के तौर पर चुने गए। उनके साथ चौधरी चरण सिंह ने भी गृह मंत्री के रूप में शपथ ली थी। मगर चौधरी चरण सिंह की कुंडली में प्रधानमंत्री बनने का भी योग था। चौधरी चरण सिंह के सिर पर भारत की प्रधानमंत्री का ताज तो सजा मगर यह ताज कांटों भरा था।
कहानी उस दौर की है जब 1977 के चुनाव के बाद मोरारजी देसाई जनता सरकार को भारतीय जनसंघ और भारतीय लोक दल सहित राजनीतिक दलों के गठबंधन के साथ चला रहे थे। यह पार्टियां इंदिरा गांधी की नीतियों के खिलाफ खड़ी तो थीं मगर इन पार्टियों के बीच समन्वय ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया। मोरारजी देसाई के कार्यकाल के दौरान हिंदू-मुस्लिम हिंसा में वृद्धि हुई। इसी कारण से लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे जनसंघ के नेताओं ने मोरारजी देसाई की वाली सरकार में साथ नहीं दिया। नतीजा हुआ कि उनकी सरकार गिर गई।
कांग्रेस ने कर दिया चरण सिंह के साथ खेला
इस दौरान सियासत में माहिर हो चुकीं इंदिरा गांधी ने बाहर से सरकार चलाने के लिए जनता पार्टी की सरकार को कांग्रेस का समर्थन दिया। तब चौधरी चरण सिंह के सिर प्रधानमंत्री का ताज सजा। मगर यह ताज कांटों भरा था। इंदिरा गांधी ने चरण सिंह की सरकार को समर्थन तो दे दिया मगर जब सदन में बहुमत साबित करने की बारी आई तो इंदिरा गांधी ने अपना समर्थन वापस ले लिया और उनकी सरकार गिर गई। मजह 23 दिनों तक प्रधानमंत्री के पद पर काबिज रहे चौधरी चरण सिंह संसद का मुंह नहीं देख पाए। चौधरी चरण सिंह को 20 अगस्त 1979 को अपना इस्तीफा देना पड़ा लेकिन 14 जनवरी 1980 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहे।
इंदिरा मनवाना चाहती थीं अपनी शर्त
बताया जाता है कि इंदिरा गांधी चाहती थीं कि इमरजेंसी के बाद उनकी पार्टी के नेताओं पर जो केस दर्ज किए गए हैं वे वापस हो जाएं। हालांकि, चौधरी चरण सिंह को यह बात स्वीकार नहीं थी। ऐसे में उन्होंने इंदिरा गांधी का समर्थन नहीं लिया और अपना इस्तीफा दे दिया। ऐसे में वह एक दिन भी प्रधानमंत्री के रूप में संसद नहीं जा पाए।
चौधरी चरण सिंह के पूर्वज भी आजादी के आंदोलन में सक्रिय थे। 1857 की क्रांति में भी उनके पूर्वजों ने हिस्सा लिया। वहीं 1929 में आजादी के लिए चौधरी चरण सिंह को भी जेल जाना पड़ा। 1940 में वह दोबारा जेल गए। हालांकि वह कांग्रेस के साथ जुड़े रहे और आजादी के लिए महात्मा गांधी के पदचिह्नों पर चलते रहे। बात 1952 की है जब जमींदारी उन्मूलन कानून के पास होने के बाद पटवारी हड़ताल करने लगे। 27 हजार पटवारियों ने इस्तीफा दे दिया और चौधरी चरण सिंह ने इसे स्वीकार कर लिया।